Friday 20 September 2013

न्यूज चैनल्स पर अब बॉलीवुड एक्टर्स ने संभाला मोर्चा, न्यूज एंकर्स परेशान!




विकास सक्सेना
बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के छोटे परदे पर रुख करने के बाद सारे बड़े सितारों ने छोटे परदे को ही दर्शकों से जुड़ने का जरिया बना लिया। छोटे परदे पर अभिनेता सलमान खान से लेकर शाहरुख खान, आमिर खान, अनुपम खेर, माधुरी दीक्षित, जूही चावला, सोनाली बेंद्रे समेत तमाम स्टार्स की एंट्री हो चुकी है। हालांकि ये बड़े सितारे ज्यादातर एंटरटेनमेंट और रियलटी शो में ही नजर आते हैं।
लेकिन अब ट्रेंड बदलता जा रहा है, कुछ बॉलीवुड अभिनेताओं ने तेजी से न्यूज चैनल की ओर भी रुख करना शुरू कर दिया है। इन दिनों हिंदी खबरिया चैनलों पर कई नए कार्यक्रमों की शुरूआत हुई है। जिसे बॉलीवुड अभिनेता होस्ट कर रहे हैं।

आशुतोष राणा- जी न्यूज पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘भारत-भाग्य विधाता’ की सह एंकरिंग आशुतोष राणा कर रहे हैं, उनके साथ चार और प्रमुख एंकर शानदार अंदाज में कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। हालांकि इस कार्यक्रम के जरिये ज्‍वलंत मुद्दों और इससे आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन किया जाता हैजिससे आम लोगों को इससे मदद मिल सके।

शेखर कपूर- वहीं एबीपी न्यूज पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘प्रधानमंत्री’ को शेखर कपूर होस्ट कर रहे हैं। यह शो भारतीय jराजनीति के इतिहास के पन्नों को खंगालता है। और दर्शकों को भारतीय प्रधानमंत्रियों के इतिहास से जुड़ीं कई अहम बातों को बदलाता है।

शेखर सुमन- प्रधानमंत्री शो के प्रसारण के बाद एबीपी न्यूज ने हालहीं में एक नए कार्यक्रम का आगाज किया था जिसका नाम है ‘मेरा नाम जोकर। इसकी एंकरिंग  बॉलीवुड अभिनेता शेखर सुमन कर रहे हैं। यह कार्यक्रम हिंदी सिनेमा के उन खास हास्य कलाकारों (कॉमेडियंस) के बारे में हैजिन्हें पहचानते तो सब हैंलेकिन हीरो-हीरोइन और बड़े फिल्मी सितारों की भीड़ में इनका जिक्र ज्यादा नहीं होता।

कबीर बेदी-  आजतक पर प्रसारित हो रहे कार्यक्रम 'वंदेमातरमकी एंकरिंग कबीर बेदी कर रहे हैं। इस शो में अपनी आवाज दी है जाने-माने अभिनेता रजा मुराद ने। इस शो में दास्तान है उन वीर जवानों कीउन महानायकों कीजिन्होंने दूसरे देशों के साथ युद्ध में अपनी जान की बाजी लगा दीलेकिन देश की आन,बान और शान पर कोई आंच नहीं आने दी।

हालांकि न्यूज चैनल्स पर ये प्रयास कोई नया नही है। इससे पहले भी कुछ ऐसे कार्यक्रमों को प्रसारित किया गया है, जिसे बॉलीवुड अभिनेताओं द्वारा होस्ट किया गया। शुरुआती दौर में लाइव इंडिया पर प्रसारित होने वाले एक क्राइम आधारित शो ‘मेरी दीवानगी’ को अभिनेता निर्मल पांडे ने होस्ट किया, जिसे अपार सफलता मिली। 2010 में उनकी निधन के बाद इस कार्यक्रम को मुकेश खन्ना ने होस्ट किया। हालांकि उनकी एंकरिंग को भी दर्शकों ने पसंद किया। इसको देखते हुए कई दूसरे न्यूज चैनल्स ने इस टोटके को आजमाना शुरू कर दिया।
दरअसल टीवी चैनलों की आपसी प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है। एक शो यदि सफल रहता है तो दूसरे चैनल्स भी उसी लाइन पर चलना शुरू कर देते हैं। पिछड़ने का खौफ इतना रहता है कि मकसद सिर्फ टक्कर देने का रह जाता हैभले ही तैयारी हो या न हो। सिर्फ उपस्थिति दर्ज कराने की चाहत रहती है। क्या यह प्रतिस्परर्धा की होड़ हैया फिर टीआरपी बंटोरने का खेल!  चैनल्स की योजना चाहे जो भी हो लेकिन यह संभव है कि आने वाले समय में कई और अभिनेता न्यूज चैनल्स की ओर अपना रुख कर सकते हैं। और अगर ऐसा होता है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि जल्द ही न्यूज चैनल्स पर बॉलीवुड के बड़े सितारे इस फील्ड के जमे जमाए एंकर्स के लिए एक बड़ी चुनौती न बन जाए। वैसे तमाम न्यूज एंकर्स इस नई परिपाटी से परेशान भी हैं, उनका कहना है कि अब चैनल के टॉप टीआरपी वाले शोज का क्रेडिट तो बॉलिवुड एंकर्स ले जाते हैं, हम लोग तो सिर्फ रुटीन शो ही कर पाते हैं।


Friday 21 June 2013

एक सैलाब आया कैसा...


एक सैलाब आया कैसा
हर-तरफ का मंजर ऐसा
बिछी अपनो की लाशें
कोई यहां ढूंढे, कोई वहां ढूंढे
अपनों का पता लगाएं कैसे
दर्दनाक था पूरा हादसा
चारो-तरफ अपनों की चीख पुकार
हर चेहरे पर बस यही सवाल
एक सैलाब आया कैसा
क्या प्रकृति का प्रकोप ऐसा
या अपनों का ही ये काम
अरण्य काटे, तरू काटे, गिर काटे
हर काट की राह हम बनाते
विकास के पथ पर चलकर
नई सफलता के झंडे दिखाते
प्रकृति में कोह पैदा कर
हम किस मुकाम पर नजर आते
सत्य की राह नहीं इतनी आसान
फिर क्यों नहीं ये समझ पाते। विकास सक्सेना


Wednesday 19 June 2013

समय के कालचक्र में फंसे शाहरूख


इन दिनों चक दे इंडिया के कबीर खान (शाहरूख खान) का वो डॉयलॉग याद आ रहा है जो फिल्म में उन्होंने भारतीय हॉकी टीम को प्रेरित करने के लिए सुनाया था। उन्होंने समय की परिभाषा इतने अच्छे ढंग से समझाया कि वो चार लाइनें रील लाइफ से निकलकर रियल लाइफ में भी प्रेरणा श्रोत बन गई। लेकिन आज ये कैसा कालचक्र है कि कल तक जो समय के मूलभूत सिद्धान्तों को समझा रहा था आज वो खुद ही समय के कालचक्र में फंस गया, और वो भी उस अपराध के लिए जो भारत में जघन्य अपराधों की श्रेणी में आता है। दरअसल कहा जा रहा है कि शाहरूख खान ने सरॉगसी की मदद से होने वाले बच्चे के लिंग परीक्षण की जांच करवाई है। शाहरूख खान इन दिनों मीडिया के उस शिकंजे में फंस चुके हैं, जिस शिकंजे में फंसकर बड़े-बड़े राजनेताओं के घोटाले सामने आ रहे हैं। मीडिया समाज का आईना है। अब ऐसे आइने में उनकी शक्ल काली नजर आने लगी है। शाहरूख खान और उनकी पत्नी गौरी को तीसरे बच्चे की ख्वाहिश अब महंगी पडती दिख रही है। अगर ऐसा है तो देश में जो सजा एक आम आदमी को मिलती है उन्हें भी मिलनी चाहिए।

बरेली में प्रसिद्ध मरकजी दारूल इफ्ता दरगाह आला हजरत ने शाहरूख खान के खिलाफ फतवा जारी कर दिया है। उन्होंने शाहरूख को शरीयत का गुनहगार ठहराया है। साथ ही दारूल इफ्ता ने सरॉगसी से बच्चा पैदा करने को भी हराम करार दिया है। फतवे में शाहरूख खान के साथ ही बच्चा पैदा करने वाली औरत को भी तौबा की सलाह दी गई है। हालांकि सरोगेट मदर का कानून हमारे देश में है। लेकिन भ्रूण में लिंग की जांच करवाने का कानून हमारे देश में नहीं है और यह एक जघन्य अपराध की श्रेणी में है। और अगर इस बात की पुष्टि हो गई कि शाहरूख खान ने ऐसा किया है तो उन्हें इसकी सजा भुगतनी पड़ेगी। हालांकि पूरे मामले की जांच पड़ताल चल रही है।

Friday 14 June 2013

राजनीति के बनते बिगड़ते समीकरण


 इन दिनों सभी टीवी चैनलों और न्यूजपेपरो में एक ही खबर छाई हुई है कि अब बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन टूट की कगार पर है, ऐसे में जेडीयूटीएमसी और बीजेडी का एक अलग मोर्चा फेडरल फ्रंट बन सकता है क्या?

 दरअसल ये सोच भले ही कई सवालों को जन्म देता हों, लेकिन ये कहना शायद मुश्किल होगा कि कोई तीसरा मोर्चा फेडरल फ्रंट बनेगा। अगर एक फीसदी मान भी लिया जाए कि ऐसा हो सकता है तो सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होगा कि कांग्रेस और बीजेपी दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों का भविष्य क्या होगा ?  क्या होगा जब कई छोटे दल मिलकर नए गठबंधन की घोषणा करेंगे ? जब बड़ी पार्टियों के साथ छोटे दल मिलकर गठबंधन की राजनीति नहीं कर सकते तो क्या छोटे-छोटे दलों की टुकड़ियां मिलकर राजनीति को एक नई दिशा दे सकेंगी ? क्या होगा जब ये अपनी सरकार मनाएंगे, तो इस राजनीति में कई अलग तरह की अपनी राजनीति नहीं खेली जाएगी ? इसलिए ये कहना असंभव है कि तीसरा मोर्चा फेडरल फ्रंट बनेगा।

 हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कई नेता फेडरल फ्रंट बनाने की बात जरूर कह रहे हैं लेकिन शायद वे भी जानते हैं कि ये संभव नहीं है। सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लिए एक नए आयाम को हवा देना सही नहीं है। अगर आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो फेडरल फ्रंट वाली उन पार्टियों की लोकसभा में कुछ ऐसी तस्वीर है- जेडीयू की 20, ममता की 18 और नवीन पटनायक की पार्टी जेडीयू की 14 सीटें हैं। अगर मुलायम सिंह की पार्टी सपा को भी मिला लिया जाए इसमें तो इनकी 22 सीटें हैं। इन तीनों को मिलाकर कुल 74 सीटें होती हैं। जब कि केंद्र में सरकार बनाने के लिए कुल 271 सीटों की जरूरत होती है। ऐसे में कितनी अगर बीजेपी और कांग्रेस को हटा दिया जाए तो कितनी पार्टियों को जोड़ने की जरूरत होगी गठबंधन में ये वे लोग भली-भांति जानते होंगे जिनके मन में ये खयाल आया है। क्योंकि कांग्रेस टीडीपी अलग हो चुकी है और बीजेपी से जेडीयू अलग होने की कगार पर है। ऐसे में ये अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि राजनीति के इस खेल में तीसरे फ्रंट की बिसात बिछाना इतना आसान नहीं होगा।

 वहीं अब ये करीब-करीब तय हो गया है कि जेडीयू और बीजेपी के रास्ते अलग होंगे। जेडीयू ने एनडीए से अलग होने का फैसला तो कर लिया है, लेकिन अभी कोई आधिकारिक ऐलान नहीं किया गया है। हालांकि जेडीयू के लिए बीजेपी से 17 साल के पुराने रिश्तों को तोड़ना भले ही अभी महंगा साबित न हो, और वे अपनी सरकार भी बचा लें। लेकिन आने वाला समय शायद इन राजनीति समीकरणों को बदल भी सकता है।

 मौजूदा विधानसभा के आकड़े को देखा जाए तो जेडीयू अकेले भी सरकार बनाए रखने दम रखती है। क्यों कि बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं। बहुमत का आंकड़ा 122 है। जेडीयू के पास स्पीकर के अलावा 117 सीटें हैं और बीजेपी की 91 सीटें हैं। बिहार विधानसभा में आरजेडी की 22, कांग्रेस की 4, सीपीआई और एलजेपी की 1-1 और 6 निर्दलीय हैं। यानी जेडीयू की अपनी 117 सीटों के साथ अगर 6 निर्दलीयों को भी जोड़ लिया जाए तो आंकड़ा 123 पहुंच जाता है। स्पीकर उदय नारायण चौधरी भी जेडीयू के नेता हैं। उन्हें भी जोड़ लिया जाए तो आंकड़ा 124 हो जाता है। यानी जेडीयू को सिर्फ 4 निर्दलीय विधायकों की मदद चाहिए। 

 राजनीतिक उठापटक के बीच जेडीयू के नेताओं ने निर्दलीय विधायकों के साथ बैठक करनी भी शुरू कर दी है। निर्दलीय विधायक पहले से ही जेडीयू और नीतीश कुमार के साथ रहे हैं। निर्दलीय विधायकों ने भी ऐलान किया कि वो बीजेपी के जेडीयू से अलग होने पर वो नीतीश कुमार का साथ देंगे। बनते बिगड़ते इस राजनीति समीकरण में जीत भले ही किसी की हो लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी पार्टी के लिए 2014 का लोकसभा चुनाव आराम से जीत पाना आसान होगा।

Thursday 30 May 2013

पत्रकारिता मायने आजादी


     बदलते समय के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता ने आज 187 वर्ष पूरे कर लिए हैं।  भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में 30 मई का दिन हिंदी पत्रकारिता के रूप में मनाया जाता है। 30 मई 1826 को पं. युगुल किशोर शुक्ल ने देश के पहले हिन्दी समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड का प्रकाशन व संपादन किया। हालांकि इससे पहले भारत में कई समाचार पत्रों का प्रकाशन होता था, लेकिन वे सब अंग्रेज़ी, फारसी और बांग्ला में थे। किंतु हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए उदंत मार्तडका प्रकाशन शुरू किया गया। इसके संपादक भी श्री जुगुलकिशोर शुक्ल ही थे। वे मूल रूप से कानपुर के निवासी थे। कलकता के कोलू टोला नामक मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से पं. जुगलकिशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदन्त मार्तण्ड नामक एक हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया।

      उदन्त मार्तण्ड का शाब्दिक अर्थ है समाचार-सूर्य। अपने नाम के अनुरूप ही उदन्त मार्तण्ड हिंदी की समाचार दुनिया के सूर्य के समान ही था। उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन मूलतः कानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल ने किया था। यह पत्र ऐसे समय में प्रकाशित हुआ था जब हिंदी भाषियों को अपनी भाषा के पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उदन्त मार्तण्डका प्रकाशन किया गया था।

     उदंत मार्तण्ड ने समाज में चल रहे विरोधाभासों एवं अंग्रेज़ी शासन के विरूद्ध आम जन की आवाज़ को उठाने का कार्य किया था। कानूनी कारणों एवं ग्राहकों के पर्याप्त सहयोग न देने के कारण 19 दिसंबर, 1827 को युगल किशोर शुक्ल को उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन बंद करना पड़ा। हिंदी और पत्रकारिता से अपने प्रेम को पं. जुगल किशोर ने जो आयाम दिया वह अविस्मर्णीय है।
     कागज से शुरू हुई पत्रकारिता अब कन्वर्जेंस के युग में पहुंच गई है। कन्वर्जेंस के कारण आज खबरें रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट और मोबाइल पर कई रूपों में उपलब्ध है। पहले की पत्रकारिता ने देश के स्वतंत्रता में अहम योगदान निभाया लेकिन आज की पत्रकारिता के मायने कहीं खो से गए हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि अब यह पूरी तरह से पूंजीवाद पर निर्भर है।

     भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजी और भाषाई पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ईस्ट इंडिया कंपनी की दमननीति के विरुद्ध आवाज के रूप में स्वाधीनता की प्रबल उमंग ने पत्रकारिता की नींव डाली थी। उस समय पत्रकारिता का मूल उद्देश्य अंग्रेजों की दमन नीतियों को हटाना, समाज सुधार, समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार और रूढि़यों का उन्मूलन था। उस समय पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार शीर्ष पर थे और व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं इनमें बाधक नहीं थीं। इस पत्र के माध्यम से ही पं. युगुल किशोर ने शोले की तरह अपनी प्रखर व तेजस्वनी वाणी से जनता में स्वतंत्रता की भावना भर दी। इस पर वरिष्ठ पत्रकार जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने लिखा है - जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नही समाचारपत्रों से शुरु हुआ है।

    आर्थिक कठिनाइयों के कारण हिंदी के आदि पत्रकार पं. जुगल किशोर शुक्ल ने 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन बंद कर दिया था, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आर्थिक कठिनाइयों ने उनकी निष्ठा को ही खंडित कर दिया था। यदि उनकी निष्ठा टूट गई होती तो वे पुनः पत्र-प्रकाशन का साहस न करते। उन्होंने 1850 में दोबारा से 'सामदंत मार्तंड' नाम का एक पत्र प्रकाशित किया था।

     हालांकि भारत में पत्रकारिता की नींव जेम्स अगस्टन हिक्की ने रखी। हिक्की भारत के प्रथम पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिये ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया। 29 जनवरी 1780 में पहला भारतीय समाचार पत्र बंगाल गजट एंड कलकत्ता एडवरटाइजर्स कलकत्ता से अंग्रजी में निकाला। इसका आदर्श वाक्य था - सभी के लिये खुला फिर भी किसी से प्रभावित नहीं। अपने निर्भीक आचरण और विवेक पर अड़े रहने के कारण हिक्की को इस्ट इंडिया कंपनी का कोपभाजन बनना पड़ा। हेस्टिंगस सरकार की शासन शैली की कटू आलोचना का पुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिली।

      स्वतंत्रता आंदोलन के समय में कई संपादकों को जेल की यातनाओं को भी सहन करना पड़ा। बावजूद इसके पत्रकारिता ने अपनी गरिमा को बरकरार रखा। लेकिन आधुनिक युग की पत्रकारिता में आए कई तरह के बदलाव ने पत्रकारिता की गरिमा को ताक पर रख दिया है। 

Thursday 23 May 2013

अरूणिमा, तुम्हारी सफलता को सलाम



   अरूणिमा क्या तुम वही खिलाड़ी हो जिसे हम सबने भूला दिया था। तुम्हारे साथ हुए हादसे के चंद दिनों बाद ही जब तुम ख़बर से दूर क्या हुईं, हम शायद तुम्हारे प्रतिभा को भूल गए थे। हम भूल गए कि तुम एक खिलाड़ी हो और खिलाड़ी की प्रतिभा कभी मरती नहीं है, वो हमेशा जीवित रहती है। तुमने जो कारनामा कर दिखाया है अरूणिमा उसे पूरा देश सलाम करता है।  

  एक तरफ जहां भारत के पास अरूणिमा जैसी होनहार खिलाड़ी है, तो वहीं दूसरी ओर भारत के पास कुछ ऐसे भी खिलाड़ी है जो देश की गरिमा और अखंडता को तार-तार करते हैं, वो भी शायद कुछ पैसों के लिए। आईपीएल में इन दिनों स्पॉट फिक्सिंग का मामला जोरो पर है। स्पॉट फिक्सिंग में फंसे क्रिकेटर जहां क्रिकेट प्रेमियों को दु:ख पहुंचाते हैं। वहीं अरूणिमा जैसे प्रतिभावान खिलाड़ी चुपचाप ऐसी इबारत लिख जाते हैं जिसे खेल प्रेमी गर्व महसूस करते हैं। सच में अरूणिमा ने वो कारनामा कर दिखाया है जिससे न सिर्फ खेल प्रेमी बल्कि भारत का हर नौजवान भारतीय होने पर गर्व महसूस करे। 25 वर्षीय विकलांग अरुणिमा ने ऐसा अजूबा कर दिखाया, जिसे हर कोई सलाम कर रहा है। अरुणिमा ने प्रोस्‍थेटिक पैरों की मदद से माउंट एवरेस्‍ट पर विजय हासिल की और ऐसा करने वाली वह विश्‍व की पहली विकलांग महिला बन गई।

     ‘पंगु लंघै गिरिवर अनयअरूणिमा ने इस कहावत को सच साबित कर दिया, कि कोई ताकत है जो लंगड़े को भी पहाड़ लांघने की शक्ति देती है। दो वर्ष पहले अरुणिमा सिन्हा ने एक रेल दुर्घटना में अपना पैर गंवा दिया था। किंतु उन्होंने माउंट एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करके संकल्प व साहस का नया उदाहरण पेश किया है। इस भारतीय महिला ने 21 मई 2013 को प्रातः यह कारनामा कर दिखाया। इतिहास के पन्नों में अब हमेशा ये तारीख याद रखी जाएगी। अरूणिमा मूल रूप से उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर की रहने वाली है। अरुणिमा विकलांग होने से पहले राष्ट्रीस्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी थीं। 12 अप्रैल 2011 में लखनऊ से दिल्ली आते समय कुछ अपराधियों ने पदमावती एक्सप्रेस से उसे बाहर फेंक दिया था, जिसके कारण उनका बायां पैर ट्रेन से कट गया था। हालांकि इससे पहले पुरुषों में एक ब्रिटिश पर्वतारोही टॉम वैटकर ने 1998 में माउंट एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने वाले पहले विकलांग पुरुष का सम्मान प्राप्त किया था।

   अरुणिमा ने टाटा स्‍टील एडवेंचर फाउंडेशन के सहयोग से विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी पर मंगलवार सुबह 10 बजकर 55 मिनट पर तिरंगा फहराया। यह संयोग ही है कि उन्‍होंने यह महान उपलब्धि सर एडमंड हिलेरी एवं तेनजिंग नॉर्गे द्वारा 29 मई, 1953 को विश्‍व की सर्वोच्‍च चोटी पर हासिल की गई विजय की 60वीं जयंती पर हासिल की। अरुणिमा ने टाटा स्‍टील एडवेंचर फाउंडेशन (टीएसएएफ) की चीफ एवं एवरेस्‍ट पर फतह हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला सुश्री बचेन्‍द्री पाल के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण हासिल किया। अरुणिमा ने अपनी यात्रा काठमांडू से प्रारंभ की और अपना अभियान 52 दिनों में पूरा किया। 

   अगर हौंसले हों बुलंद और इरादे हो मजबूत तो मंजिल कदमों में आ झुकती है। अपने इस इरादों से अरूणिमा ने ये साबित कर दिया है कि दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जिसे पूरा न किया जा सके। इस आर्टिकल के जरिए मै इतना जरूर कहना चाहूंगा कि अरूणिमा जैसी प्रतिभावान ने खिलाड़ी ने खिलाड़ियों को एक मैसेज जरूर दिया है जो देश के प्रति नहीं बल्कि अपने लिए खेलते हैं, अपनी जरूरतों के लिए और चंद पैसे को लिए खेलते हैं। वो शायद ये भूल जाते हैं कि जिस देश में खेल को धर्मस्थल माना जाता है खिलाड़ियों को देवता मान लेते हैं लोग, उसी देश में खेल के प्रति गद्दारी करने वालों खिलाड़ियों का क्या अंजाम हो सकता है, ये तो आप सबके सामने हैं।